कर्म जिसका मनोरंजन है, जीवन का दुखभंजन है
समाज को संतुलित कर रही, डोर वो पतली हूँ
खोई है जो फूलों में, सावन के झूलों में
नष्ट हो जाएगी इक दिन जो, मैं वो कठपुतली हूँ
त्याग दी जाती है, कठपुतली जब काम ना आए
कर्म को जो भूल गयी, स्मरण उसका नाम ना आए,
कठपुतली जिससे नाच रही है, मैं वो बिजली हूँ
नष्ट हो जाएगी इक दिन जो, मैं वो कठपुतली हूँ
कठपुतली से मोहित होना, मूर्खता की निशानी है
खो गयी इच्छाओं में, बेकार वो जवानी है
जल तक जो सीमित रहती , मैं वो मछली हूँ
नष्ट हो जाएगी इक दिन जो, मैं वो कठपुतली हूँ