Puneet Verma Poetry

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Category Archives: Greenry Poems

कोना कोना वृक्ष लगेगा, ये धुआं कहीं खो जाएगा ।

इक दिन ऐसा आएगा, जब हर शक्श जग जाएगा ।
कोना कोना वृक्ष लगेगा, ये धुआं कहीं खो जाएगा ।
चिड़िया होगी, कोयल होगी ।

अम्बिया की उस डाली पे, मिठी सी कोई हलचल होगी ।
मिशन ग्ग्रीन का फिर ये सपना, हर चेहरे पर खिल जाएगा ।
इक दिन ऐसा आएगा, जब हर शक्श जग जाएगा ।

खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

कब होगी बारिश जो बता दे, ऐसा हम इक टूल बनाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं
धुंआ उगलती कारों को, ऊपर चढ़ती दीवारों को
हम रोक सकें तो रोक लें, इन धरा की दरारों को
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

काहे ये पहाड़ गिर रहे, देखो नदियाँ सूख रही हैं
सदियों से जो प्यास बुझाए, काहे हमसे रूठ रही हैं
बढ़ते तापमान को रोके, ऐसा कोई रूल बनाएं
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

मिशन ग्रीन हो जीवन में, ऐसा हम कानून बनाएं
ग्रीन ड्रीम का डोज़ चखें सब, ऐसा कोई स्पून बनाएं
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

छोड़ के सब कुछ इस मिटटी में , कहीं अचानक खो जाएगा

मन को अपने शांत करो अब , इतना क्यों तुम तड़प रहे हो
सबको जल्दी माफ़ करो अब , इतना क्यों तुम भड़क रहे हो
पल दो पल का खेल है सारा, खत्म तू पल में हो जाएगा
छोड़ के सब कुछ इस मिटटी में , कहीं अचानक खो जाएगा

क्यों तू इतने ख्वाब सजाए , इतने सारे महल बनाए
फसकर इन सब चीज़ों में, क्यों तू सर का भोझ बढ़ाए
प्रभु प्रेम का गाना सुनकर, पल में अब तू सो जाएगा
छोड़ के सब कुछ इस मिटटी में , कहीं अचानक खो जाएगा

निकल जा घर से लोक भ्रमण पर , जीवन अपना आज तू जी ले
छोड़ के सब कुछ जैसा तैसा, ग्रीन टेक का प्याला पी ले
मिशन ग्रीन की कविता सुनकर , मुक्त अभी तू हो जाएगा
छोड़ के सब कुछ इस मिटटी में , कहीं अचानक खो जाएगा

भूल के सारी दुनिआ को, वर्मा कविता लिख रहा है
दिल्ली का हर शांत हृदय अब , मिशन ग्रीन पे दिख रहा है
अंधकारमय बुद्धि में अब, आज सवेरा हो जाएगा
छोड़ के सब कुछ इस मिटटी में , कहीं अचानक खो जाएगा

अपनी तो खत्म हो गयी, अब आपकी बारी है

खुदा की मोह्हबत में , मदहोश कायनात सारी है
जब तक वो साथ है, जशने-जिंदगी जारी है
जीवन की जेल में, वर्ना हम जीते कैसे
दर्द ये जीवन का, वर्ना हम पीते कैसे
अपनी तो खत्म हो गयी, अब आपकी बारी है

कहता है अपना ये मन, फिर आपको बुलाऊँ मैं
टकराऊं मेह के प्यालों को, शराब को ड्ढलाऊँ मैं
बंदिश मुघसे जीवन की, क्यों सहन नहीं होती है अब
सोने की ये झूठी लंका, क्यों दहन नहीं होती है अब
नाटक इस जीवन का, देखो अब तक जारी है
अपनी तो खत्म हो गयी, अब आपकी बारी है

करता हूँ सलाम सबको, तो फिर मैँ अब चलता हूँ
डूबते हुए सूरज के साथ, तो फिर मैँ अब ढलता हूँ
हाज़िर कर दूँ खुद को अब, खुदा के दरबार में
खुशियां आएं जीवन में, और इस संसार में
वर्मा के इन् होठों पर , देखो कविता जारी है
अपनी तो खत्म हो गयी, अब आपकी बारी है

हालत यूँ सुधर रही है, क्या होगा ये खबर नहीं

चला गया वो दौर, जब दूध में पानी मिलाया जाता था
अब तो जहर का मौसम है, बिना इसके कुछ जचता नहीं
जहर छोड़ते डिब्बों में, लोग अब घूम रहे हैं
हालत यूँ सुधर रही है, क्या होगा ये खबर नहीं

जमीन में जहर है, हवा में भी कम नहीं
दिलों में गर हो गया, इसका हमे गम नहीं
फर्क पड़ता नहीं अब हमको, हरा भरा वो शज़र नहीं
हालत यूँ सुधर रही है, क्या होगा ये खबर नहीं

कट रही आज वो माता, जो दूध का सागर थी
पाल रही थी सबको, सुख की वो गागर थी
चबा कर उसको खा रहे जो, मिलती उनको कब्र नहीं
हालत यूँ सुधर रही है, क्या होगा ये खबर नहीं

बयान कर रहा वर्मा तू, कहानी अब उस दौर की
दिल्ली की उस जनता की, जनता के उस शोर की
चीख रही है कलम ये मेरी, उसको भी अब सब्र नहीं
हालत यूँ सुधर रही है, क्या होगा ये खबर नहीं

दिल्ली को तुम ग्रीन बनाओ, पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ

उड़ता पंछी मुघे बुलाए, जाने क्यों वो अश्क बहाए
जब भी बैठे वो ट्विटर पर, शहर का अपने हाल सुनाए
मिशन ग्रीन की कविता सुनकर, ग्रीनटेक की बीन बजाओ
दिल्ली को तुम ग्रीन बनाओ, पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ

जीवन मिलता शहर को अपने, फूलों की इन कलियों में
व्याधि को अब रुक्सत कर दो, वृक्ष उगाओ गलियों में
सुबह सुबह तुम कविता गाओ, चलो उठो अब दौड़ लगाओ
दिल्ली को तुम ग्रीन बनाओ, पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ

चलता हूँ मैं बंधू अब तो, काम बहुत सा बाकी है
ग्रीनटेक के प्याले में, जाम बहुत सा बाकी है
शहर को अपने स्वछ बनाओ, देश बचाओ देश बचाओ
दिल्ली को तुम ग्रीन बनाओ, पेड़ लगाओ पेड़ लगाओ

चाहूँ मैं भी जीवन को, मैं इंसान हूँ रोबोट नहीं

सिस्टम पर यूँ बैठे बैठे, साँसे मेरी थम रही हैं
छुट्टी वाले दिन भी मेरी, आंते सारी जम रही है
खोट है सारा जीवन का, कोई मुझमे खोट नहीं
चाहूँ मैं भी जीवन को, मैं इंसान हूँ रोबोट नहीं

कहते हैं सब ध्यान रखो तुम, करलो उतना काम रखो तुम
ध्यान आपका में रखूँगा, मेरा भी कुछ ध्यान रखो तुम
पल दो पल का खेल ये सारा, कैसे सबको ना कहूँ में
कर्म ही अपना जीवन सारा, कर्म को अपनी माँ कहूँ मैं
माँ तू मुघको सांस दिला दे, चाहूँ मैं कोई नोट नहीं
चाहूँ मैं भी जीवन को, मैं इंसान हूँ रोबोट नहीं

चलता रहता है जो हर पल , रोबोट कभी भी बंद हो जाता
चिपक रहा जो सिस्टम से , इंसान कभी भी बंद हो जाता
ग्रीन टेक को जो ना जाए , ऐसा कोई वोट नहीं
चाहूँ मैं भी जीवन को, मैं इंसान हूँ रोबोट नहीं

होली पर यूँ भांग चढ़ाकर, मस्ती में सब पागल हो गए

बच्चे बूढ़े नाच रहे हैं, हम तो गुंजियां बाँट रहे हैं
होली के इस अवसर पर, बाबा हमको डांट रहे हैं
आसमान में रंगों के, घने घने से बादल हो गए
होली पर यूँ भांग चढ़ाकर, मस्ती में सब पागल हो गए

दिल्ली की तुम सड़कें देखो, प्रीत विहार के लड़के देखो
सड़कें सारी आज धुल गयी, भांग हमारे मुह में घुल गयी
आज गुब्बारे सर पर फूटे, शहर में हमने सब दिल लूटे
आसमान में रंगों के, घने घने से बादल हो गए
होली पर यूँ भांग चढ़ाकर, मस्ती में सब पागल हो गए

मिशन ग्रीन की कविता पड़कर, ग्रीन ग्रीन ये होली हो गयी
कृष्ण नगर की गलियों में जब, कविताओं की झोली खो गयी
हम भी पागल आज हो गए, तुम भी पागल आज हो गए
होली पर यूँ भांग चढ़ाकर, मस्ती में सब पागल हो गए

लहसुन खाओ, खुश हो जाओ

लहसुन खाओ, खुश हो जाओ
गोली छोड़ो, जलन मिटाओ
अगर हो गयी, खांसी तुमको
अदरक का इक, टुकड़ा खाओ
गोली छोड़ो, जलन मिटाओ
लहसुन खाओ, खुश हो जाओ

लंग्स को अपने, साफ़ कराओ
हल्दी का तुम, घोल बनाओ
अलजिक एसिड, पैदा करलो
खोल के अब तुम, अनार भी खाओ
गोली छोड़ो, जलन मिटाओ
लहसुन खाओ, खुश हो जाओ

ऑरेंज खा लो, गाजर खा लो
ऑक्सीजन का फिर, फ्लो बड़ा लो
पानी पी लो, सेब भी खाओ
गोली छोड़ो, जलन मिटाओ
लहसुन खाओ, खुश हो जाओ

कहता है अब अपना ये मन, दिल्ली में कुछ बात है

मेट्रो की इस खिड़की से, अक्षर धाम को देख रहा हूँ
स्वामी जी के चरणों में, अपना मस्तक टेक रहा हूँ
यमुना बैंक से दिख रही अब, चम चम करती रात है
कहता है अब अपना ये मन, दिल्ली में कुछ बात है

कश्मीरी गेट की सड़कों पर, फूटपाथ पर लगा बसेरा
आम आदमी तड़प रहा है, भड़क रहा है शहर ये मेरा
साथ हमारे मिशन ग्रीन है, ग्रीन पीस का साथ है
कहता है अब अपना ये मन, दिल्ली में कुछ बात है

नदियों और इन् नालों में, आज भी बसते लोग हमारे
हाई टेक इस दिल्ली में, आज भी बसते रोग वो सारे
शहर की इस तररकी में, जाने किसका हाथ है
कहता है अब अपना ये मन, दिल्ली में कुछ बात है